धनतेरस मनाने का क्या कारण है| इस दिन खरीदारी क्यों करनी चाहिए।
धनतेरस को धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है। धनतेरस कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन मनाया जाता है। इसी तिथि को भगवान धन्वंतरि का जन्म हुआ था ,और यह पर्व भगवान धन्वंतरि के नाम पर ही मनाया जाता है। धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि की पूजा उपासना की जाती है क्योंकि भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद के देवता के रूप में माना गया है।
इन्होंने ही मनुष्य जाति की भलाई के लिए आयुर्वेद
का ज्ञान दिया। बीमारी और कष्टों से मुक्ति के लिए मानव जाति की सहायता भगवान
धन्वंतरि ने की।
आयुर्वेद के जनक
भगवान धन्वंतरि के जन्मदिवस को भारत सरकार ने 2016 से
राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के नाम पर मनाने का निर्णय किया।
इसके अतिरिक्त इस त्यौहार को मनाने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं हैं।
धनतेरस के दिन
समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि का अवतरण हुआ था। उनके एक हाथ में कलश और दूसरे हाथ
में आयुर्विज्ञान का ग्रंथ था। भगवान धन्वंतरि को देवताओं का वैध माना जाता है।
क्योंकि भगवान
धनवंतरी का जब अवतरण हुआ था तो उनके एक हाथ में कलश था इसीलिए इस दिन लोग बर्तन
इत्यादि खरीदते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन खरीदे गए वस्तुओं में 11 गुना वृद्धि होती है ,और भगवान धन्वंतरि की कृपा
सालों साल बनी रहती है।
मान्यताएं
ऐसी मान्यता है
कि धनतेरस के दिन चांदी खरीदना चाहिए क्योंकि चांदी को चंद्रमा का प्रतीक माना गया
है। चंद्रमा शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन उत्पन्न होता है।जिसके
पास संतोष है वह सबसे बड़ा धनवान और सुखी व्यक्ति है ,क्योंकि संतोष से बड़ा कोई धन नहीं होता है।
क्योंकि भगवान
धन्वंतरि आयुर्वेद के देवता है इसलिए स्वास्थ्य व सेहत के लिए संतोष होना परम
आवश्यक है।इसी दिन लोग दीपावली की रात में पूजा करने के लिए भगवान गणेश व माता
लक्ष्मी की प्रतिमाएं खरीदते हैं।
इस शुभ दिन पर
लोग अच्छी किस्मत पाने के लिए सोने ,चांदी की
वस्तुएं भी खरीदते हैं। भगवान धन्वंतरि क्योंकि देवताओं के चिकित्सक है इसलिए यह
दिन चिकित्सकों के लिए भी खास होता है।
धनतेरस की लोक कथा
धनतेरस की शाम को
घर के मुख्य दरवाजे पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा है। इस प्रथा के पीछे एक
लोककथा छिपी है जो इस प्रकार है।
एक बार यमराज ने
अपने यमदूत उसे प्रश्न किया कि मनुष्यों के प्राण हरण करते समय तुम्हें दया नहीं
आती,
तो यमदूतों ने उत्तर दिया
कि हमें दया नहीं आती है हम तो आपकी आज्ञा का पालन करते हैं।
यमराज ने सोचा कि
शायद यमदूत संकोच बस ऐसा कह रहे हैं,तो यमराज
उन्हें निर्भय करते हुए बोले कि यदि कहीं भी तुम्हारे मन में दया का भाव आता है ,तो
निसंकोच बोलो इसमें संकोच करने की कोई बात नहीं है।तभी यमदूतों ने कहा महाराज
हमारे साथ सच में एक ऐसी घटना घटी है ,जिससे हमारा हृदय
द्रवित हो गया और हमारी रूह तक कांप गई।
तब यमराज ने
उत्सुकता बस पूछा कि ऐसी क्या घटना घटी तब यमदूतों ने कहा महाराज एक बार
हंस नाम का राजा
शिकार करने के लिए जंगल को गया। वह जंगल में अपने साथियों से बिछड़ गया और दूसरे
राज्य की सीमा में प्रवेश कर गया। तब वहां के राजा हेमा ने राजा हंस का बहुत ही
सेवा सत्कार किया।
उसी दिन राजा
हेमा की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया था। जिसको ज्योतिषियों ने बताया कि यह
बालक विवाह के 4 दिन बाद मर जाएगा। राजा के आदेश से उस
बालक को यमुना के तट पर एक गुफा में ब्रह्मचारी के रूप में रखा गया। उस पर
स्त्रियों की छाया तक नहीं पड़ने दी गई। लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था विधि का
विधान अडिग होता है। 1 दिन संयोगवश राजा हंस की बेटी यमुना
के तट पर आ गई और उसने उस ब्रह्मचारी बालक को देखा और देखते ही एक दूसरे पर दोनों
मोहित हो गए, और उन्होंने गंधर्व विवाह कर लिया।
विवाह के चौथे दिन ही राजकुमार की
मृत्यु हो गई तब उस कन्या के करुण विलाप से मेरा ह्रदय द्रवित हो गया। उन दोनों की जोड़ी इतनी सुंदर थी कि वह
रति और कामदेव के समान लगते थे। उस युवक के प्राण हरण करते समय मेरे अश्रु थम नहीं
रहे थे।
तब यमराज ने कहा
क्या किया जाए विधि के विधान के अनुरूप न चाहते हुए भी हमें या कार्य करना पड़ा।
तब दूत ने पूछा
महाराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है कि व्यक्ति अकाल मृत्यु को प्राप्त न हो।
तब यमराज ने अकाल
मृत्यु का उपाय बताते हुए कहा कि धनतेरस के दिन विधि विधान से पूजन एवं दीप दान
करने से अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलता है। जिस घर में यह पूजन होता है वहां अकाल
मृत्यु का भय पास नहीं जाता।
इसी मान्यता के
अनुसार धनतेरस के दिन लोग आंगन में और दरवाजे पर मुख्य द्वार के सामने दीपक जलाते
हैं। कुछ लोग इस दिन यम देवता के नाम से व्रत भी रखते हैं।
इसी घटना से धनतेरस के दिन धनवंतरी पूजन एवं दीप जलाने का कार्य शुरू हुआ तभी से यह परंपरा चली आ रही है।
धनतेरस से जुड़ी हुई दूसरी मान्यता है
कार्तिक कृष्ण
त्रयोदशी के दिन देवताओं के कार्य में बाधा डालने के कारण दैत्य गुरु शुक्राचार्य
की एक आंख भगवान विष्णु ने फोड़ दी थी।
कथा के अनुसार
देवताओं को राजा बलि के भय से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार
लिया और राजा बलि जहां यज्ञ कर रहे थे वहीं पर भगवान विष्णु वामन रूप में जा
पहुंचे।
राजा बलि बहुत
दानी था वह द्वार पर आए हुए किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटाता था।
शुक्राचार्य ने भगवान विष्णु को पहचान लिया और उन्होंने राजा बलि को मना कर दिया
यह ब्राम्हण कुछ भी मांगे तो इंकार कर देना। स्वयं भगवान विष्णु हैं जो देवताओं की
सहायता के लिए स्वयं आए हैं।
लेकिन राजा बलि
ने शुक्राचार्य की बात को नहीं माना। बामन भगवान ने राजा बलि से तीन पग भूमि का
दान मांगा। बामन भगवान द्वारा मांगी गई तीन पग भूमि दान करने के लिए,वह कमंडल से जल लेकर संकल्प लेने लगे तब बली को दान करने से रोकने के लिए
शुक्राचार्य राजा बलि के कमंडल में बहुत सूक्ष्म रूप बनाकर घुस गए।
इससे कमंडल में
जल निकलने का मार्ग बंद हो गया। तब भगवान बामन शुक्राचार्य की चाल समझ गए और वह
कमंडल में कुशा का एक तिनका घुसा दिया जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई।
तब शुक्राचार्य
तिल मिलाकर कमंडल से बाहर निकल आए। दानवीर बलि ने कमंडल से जल लेकर तीन पग भूमि
दान कर दिया।
तब भगवान बामन ने
एक पग में धरती को नापा ,दूसरे पग में अंतरिक्ष को
नाप लिया ,अब तीसरे पद के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचा,
तब राजा बलि ने स्वयं अपने सर पर भगवान का पग रखवा लिया और उन्होंने
अपना सर्वस्व दान कर दिया।
इस तरह बलि के भय
से देवताओं को मुक्ति मिली और बलि ने जो धन-संपत्ति देवताओं से छीन ली थी ,उससे कई गुना अधिक देवताओं को वापस मिल गई। इस उपलक्ष में भी धनतेरस का
त्यौहार मनाया जाता है।
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