भगवान को संपूर्ण समर्पण ही समग्र विकास का सूत्र है-bhagwaan ko sampoorn samarpan hi samagr vikash ka sutra hai

 भगवान को संपूर्ण समर्पण ही समग्र विकास का सूत्र है-bhagwaan ko sampoorn samarpan hi samagr vikash ka sutra hai

भगवान श्री कृष्ण महाभारत के युद्ध में एक सारथी की भूमिका निभा रहे थे ।और इस भूमिका का चयन उन्होंने स्वयं ही किया था। क्योंकि अर्जुन का सम्पूर्ण  समर्पण भगवान के प्रति था ।


भगवान को संपूर्ण समर्पण ही समग्र विकास का सूत्र है-bhagwaan ko sampoorn samarpan hi samagr vikash ka sutra hai




भगवान श्री कृष्ण क्षणभर में समस्त सृष्टि को अपने सुदर्शन चक्र के द्वारा नष्ट कर देने में सामर्थ्य वान व समस्त सृष्टि के पालन करता अपने प्रिय मित्र धनुर्धारी अर्जुन के सारथी बने थे।

इस बात से अर्जुन बहुत ही संकुचित थे और सोच रहे थे कि उनके प्रिय सखा श्री कृष्ण रथ को हांकेंगे यह उन्हें बहुत अटपटा लग रहा था।

सारथी की भूमिका ही नहीं, बल्कि महाभारत के रूप में महायुद्ध की पटकथा भी उन्हीं के द्वारा लिखी गई थी। और युद्ध से पूर्व ही अधर्म का अंत एवं धर्म की विजय वे सुनिश्चित कर चुके थे।

उसके बाद भी उनके द्वारा सारथी की भूमिका का चयन अर्जुन को असहज कर देने वाला था।

 भगवान कृष्ण सारथी के रूप में सारथी के संपूर्ण कर्मों का संपादन कर रहे थे। एक सारथी की भांति वह अर्जुन को रथ में सम्मान के साथ चढ़ाने के बाद वे रथ पर बैठते थे। और अर्जुन के आदेश की प्रतीक्षा करते थे।

जबकि अर्जुन उन्ही के मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद के अनुरूप चलते थे, परंतु भगवान कृष्ण अपने इस अभिनय का संपूर्ण समर्पण के साथ निर्वहन करते थे।जब युद्ध की समाप्ति होती तो ,वह पहले अर्जुन को रथ के नीचे उतार कर इसके बाद उतरते थे।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से युद्ध के पहले ही बोले थे कि हे अर्जुन युद्ध में विजय को प्राप्त करने के लिए माता भगवती दुर्गा से आशीर्वाद लेना अधिक उपयुक्त एवं उचित रहेगा।

माता भगवती दुर्गा के आशीर्वाद के बाद ही युद्ध का प्रारंभ करना चाहिए।इसके साथ-साथ भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक और सलाह दी बोले कि, हे अर्जुन मेरे प्रिय हनुमान जी का आवाहन करो।

हनुमान जी अत्यंत बलवान ,अजय ,महान पराक्रमी और धर्म के प्रतीक है। कहा की हे अर्जुन उन्हें अपनी रथ की ध्वजा पर विराजमान होने के लिए उनका आवाहन करो। और अर्जुन ने वैसा ही किया जैसा भगवान श्री कृष्ण ने कहा था।

सारथी की भूमिका में ही भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच परम रहस्यमई गीता का गान किया था।

भगवान श्री कृष्ण ने सारथी के रूप में अर्जुन के पराक्रम को निखारा ही नहीं बल्कि कठिन से कठिनतम क्षणों में उनको सुरक्षित एवं संरक्षित कर अपनी भूमिका को सार्थक किया था। इसीलिए भीष्म पितामह अर्जुन को आशीर्वाद देकर बोले थे, की प्रिय अर्जुन जिसके सारथी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो, उसको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। इस युद्ध में तुम ही विजयी होगे।

सारथी के रूप में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को धर्म का पाठ उस समय पढ़ाया जब महादानी सूर्यपुत्र कर्ण के रथ के पहिए धरती में धंस गए थे।

और तब कर्ण,अर्जुन को धर्म एवं नीति का पाठ पढ़ा रहा था। उस  समय भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से बोले कि ,हे अर्जुन कर्ण किस मुंह से धर्म की बात कर रहा है। द्रोपदी के चीर हरण के समय, अभिमन्यु के वध के समय, भीम को विष देते समय, लाक्षागृह को जलाने के समय उसका धर्म कहां था?यही समय है ,यही अवसर है कर्ण को समाप्त करने का।

भगवान श्री कृष्ण के मार्गदर्शन से ही कर्ण जैसे महावीर का अंत संभव हो सका। सारथी के रूप में ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से जयद्रथ का वध करने के लिए व्यूह की रचना की थी और अर्जुन जयद्रथ का वध कर सका था।भगवान श्री कृष्ण ने सारथी की भूमिका का इस खूबी से निर्वहन किया था ,कि अर्जुन को लग रहा था

यदि कान्हा के हाथों में घोड़ों की लगाम न होती तो पता नहीं मेरा क्या होता?

यहां पर भगवान के दृश्य हाथों में घोड़ों की लगाम थी और अदृश्य हाथों में महाभारत के महायुद्ध की समग्र डोर।

महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कुरुक्षेत्र में भगवान कृष्ण रथ पर बैठे थे।भगवान कृष्ण के अधरों पर एक निश्चल मुस्कान सदा की तरह बिखरी हुई थी और आज वह कुछ और भी गहरी हो गई थी। आज उनके व्यवहार में और हाव-भाव में कुछ परिवर्तन नजर आ रहा था।

भगवान श्रीकृष्ण सदा की तरह रथ से अर्जुन से पहले नहीं उतरे उन्होंने पहले अर्जुन को नीचे उतारा इसके बाद उतरे।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के रथ से उतरने के पश्चात कुछ देर तक चुप रहे, फिर वह धीरे से उतरे और अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें रथ से दूर ले गए, उसके पश्चात जो घटा, वह उन सर्वज्ञ भगवान कृष्ण के लिए तो परिचित था, परंतु अर्जुन के लिए विस्मयकारी, अकल्पनीय एवं आश्चर्यजनक था।

हुआ यह कि अनायास ही रथ से अग्नि की लपटें निकलने लगी और एक भयंकर विस्फोट करते हुए  जलकर खाक हो गया। अर्जुन देख रहे थे जो रथ इतने अजेय महारथियों के अंत की कहानी का प्रत्यक्षदर्शी था, आज वह क्षणभर में नष्ट हो गया।

अर्जुन देख रहे थे उस रथ से जुड़े अतीत को, इसी रथ से पूज्य पितामह की देह को अस्त्रों से बींध  दिया था। और इसी रथ से अनगिनत महारथियों का वध किया था।और इसी रथ पर बैठकर उनके प्रिय मित्र भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश दिया था। आज वह राख के ढेर में परिवर्तित हो चुका है।

इस घटना से हताहत अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि ,हे कान्हा आप के नीचे उतरते ही यह रथ क्षणभर में नष्ट हो गया जलकर राख का ढेर बन गया। ऐसा कैसे हो गया? इसके पीछे क्या रहस्य है?

तब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे पार्थ यह तो बहुत पहले ही नष्ट हो चुका था,इसकी आयु उसी समय समाप्त हो गई थी ,जब पितामह भीष्म ने इस पर अपने दिव्यास्त्र का प्रहार किया था।

इस रथ में इतनी क्षमता नहीं थी की भीष्म पितामह के अचूक दिव्यास्त्र को सहन कर सके। इसके पश्चात इसकी आयु क्षीण हुई,जब इस पर द्रोणाचार्य और महारथी कर्ण के अस्त्रों का प्रहार हुआ। यह रथ तो अपनी मृत्यु का वरण कब का कर चुका था।

अर्जुन भगवान कृष्ण से आश्चर्य भरे भाव से बोले, हे कान्हा! यह रथ इतने पहले मृत्यु का वरण कर चुका था ,तो फिर यह इतने समय तक चला कैसे? कैसे इतने दिनों तक आपके हाथों सकुशल कार्य करता रहा"। अर्जुन के इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण बोले कि, हे अर्जुन"यह सत्य है कि इस दिव्य रथ की आयु पहले से ही समाप्त हो चुकी थी, परंतु यह रथ मेरे संकल्प से चल रहा था।

इसकी आयु की समाप्ति के पश्चात भी इसकी जरूरत थी। इसलिए यह चला। अतः संकल्प बल से इसे इतने समय तक खींच लिया गया। भगवान कृष्ण आगे बोले, धनंजय भगवान का संकल्प अटूट ,अटल और अखंड होता है।

यह संकल्प संपूर्ण सृष्टि में जहां कहीं भी लग जाता है,वहां अपना प्रभाव दिखाता है और यह प्रभाव संदेह से परे अवश्य ही पूर्ण परिणाम देने वाला होता है। और जैसे ही संकल्प पूर्ण होता है,संकल्प की शक्ति वापस भगवान के पास चली जाती है और उसका समय एवं प्रभाव समाप्त हो जाता है।

ठीक इसी तरह से इस रथ पर मेरा संकल्प बल कार्य कर रहा था और उसके समाप्त होते ही जो हुआ वो तुमने देखा।

भगवान कृष्ण आगे बोले,की है अर्जुन इसीलिए हम सब को भगवान के हाथों यंत्र बनकर अपना कार्य करना चाहिए।यंत्र का कार्य होता है यंत्री के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पण कर देना और उसके आदेश का पालन करना। इसे करता पन का अहंकार समाप्त हो जाता है और जीवन का विकास प्रारंभ होता है।

जिसका जितना योगदान है उतना ही करना चाहिए और शेष यंत्री के हाथों में छोड़ देना चाहिए। यही जीवन के विकास का रहस्य है।

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