मुक्ति
सहज है-mukti sahaj hai
हम भगवत प्राप्ति,
जीवन मुक्ति, तत्वज्ञान, परम प्रेम, कल्याण, उद्धार आदि
जो कुछ ऊंची से ऊंची बात चाहते हैं, उसकी प्राप्ति स्वतह
सिद्ध है।
यह बात बहुत ही मूल्यवान है। अब ध्यान
दें। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-- प्रकृति पुरुसं चैव विध्यनादी उभावपि।
अर्थात प्रकृति और पुरुष दोनों ही तू
अनादि जान। और क्षेत्रग्यम चापि मां विद्धि सर्व छेत्रेशु भारत।
हे अर्जुन। तू सब क्षेत्रों में
क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान। अभिप्राय यह है कि प्रकृति और पुरुष
दोनों भिन्न-भिन्न हैं ऐसा मान लें। आप पुरुष हैं और प्रकृति आप से भिन्न है।
तात्पर्य यह निकला कि आप जिससे अलग अर्थात
मुक्त होना चाहते हैं, उस प्रकृति से आप स्वतः मुक्त हैं।
केवल आपने अपनी इच्छा से प्रकृति को पकड़
रखा है,
उसे स्वीकार कर रखा है। प्रकृति को पकड़ने से ही दुख और बंधन हुआ
है।इसे छोड़ दें तो आप ज्यों के त्यों जीवनमुक्त ही हैं।
आप निरंतर रहने वाले हैं और प्रकृति निरंतर बदलने वाली है। वह आपसे स्वाभाविक रूप से अलग है।
प्रकृति ने आपको नहीं पकड़ा है अपितु आपने
ही प्रकृति को पकड़ा है। और यह मैं हूं और यह मेरा है इस प्रकार की मान्यता की है।
मैं मेरे की मान्यता करना ही भूल है। यह जो इंद्रियों सहित शरीर है,
यह मैं नहीं है और जो यह संसार है वह मेरा नहीं है।
इस बात को मान लेना है और कुछ नहीं करना
है।
कारण कि वस्तुतः बात ऐसी ही है।
आप निरंतर रहने वाले हैं और संसार निरंतर
जाने वाला है इस और केवल दृष्टि करनी है। और कुछ नहीं करना है। यह करना कराना सब
प्रकृति संसार के राज्य में है।
जिस छण यह विचार हुआ कि हम संसार से अलग
हैं उसी क्षण मुक्ति है।
संसार से संबंध मानने में खास बात है।
उससे सुख लेने की इच्छा। यह सुख लेने की इच्छा ही संपूर्ण दुखो,
पापों,अनार्थों, दुराचारों अन्यायों आदि की जड़ है।
जब तक सांसारिक पदार्थों के संग्रह और सुख
भोग की इच्छा रहेगी। तब तक चाहे कितनी ही बातें सुन लो ,पढ़ लो ,सीख लो और चाहे त्रिलोकी का राज्य प्राप्त
कर लो, फिर भी दुख मिटेगा नहीं।
यह पक्की बात है,
यह अटल सत्य है।
संग्रह और सुख भोग की वृद्धि चेष्टा करने
से नहीं मिटेगी। यहां चेष्टा की बात ही नहीं है।
आपने मैं और मेरे की मान्यता की हुई है।
मानी हुई बात ना मानने से ही मिटती है।
चेष्टा से नहीं। विवाह होने पर स्त्री
पुरुष को अपना पति मान लेती है, तो इसमें पति मानने
में कौन सी चेष्टा करनी पड़ती है? बस केवल मानना होता है।
किसी से संबंध को जोड़ने में और संबंधों
को तोड़ने में सब स्वतंत्र हैं। वास्तव में हमारा संबंध केवल परमात्मा से है।
भूल से हमने प्रकृति से संबंध जोड़ लिया
है। अब उस माने हुए संबंध को तोड़ लेना है बस यही काम है।
परमात्मा से हमारा संबंध स्वाभाविक और
सच्चा है,
और प्रकृति से हमारा संबंध अस्वाभाविक और बनावटी है।
अस्वाभाविक और बनावटी संबंधों को तोड़ देना है।
वह टूटेगा प्रकृति से अपना संबंध न मानने
से। पहले अपने को बालक मानते थे, पर क्या अब अपने को
बालक मानते हैं? तो जैसे बालक पन के साथ आपने मानता की
थी।वैसी ही अब जवानी के साथ मान्यता कर ली ,कि मैं जवान हूं,
ऐसे ही "मैं रोगी हूं," 'मैं निरोगी
हूं"आदि मान्यताएं कर ली।
वृद्धावस्था के साथ मान्यता कर ली और फिर
मृत्यु के साथ मान्यता कर ली।विचार करें कि मान्यता करने के सिवा आपने और कौन सी
चेष्टा की?
जैसे आपने पहले अपने को बालक माना,
वैसे ही अब अपने को बालक न मानकर जवान मान लिया। तो केवल मान्यता ही
मान्यता है। ना कोई चेष्टा है ,न कोई विचार।
इतनी सरल बात संसार में कोई है ही नहीं।
केवल संयोग जन्य सुख की इच्छा के कारण कठिनाई हो रही है।
वह संयोगजन्य सुख भी ऐसा है कि जिससे
परिणाम में दुख ही दुख मिलता है।
सुख के लालच से महान अनर्थ होगा ही। इसे
टालने की ताकत ब्रह्माजी में भी नहीं है। रुपए मिल जाएं तो सुखी हो जाऊंगा,
पदार्थ मिल जाएं तो सुखी हो जाऊंगा, दुनिया की
सारी संपदा मिल जाए तो सुखी हो जाऊंगा। यह सारी बातें अटकी हुई है।
आज तक इन पदार्थों से किसी को संपूर्ण सुख
नहीं मिला, मिल सकता ही नहीं। बालक पन से ही सुख
लेने के पीछे पड़े हैं। अब तक कितना सुख ले लिया, बताओ?
धन भी इकट्ठा किया है, विषय भोग भी भोगे है।
थोड़ी बहुत मान सम्मान बड़ाई भी मिली है।
इस प्रकार संसार का थोड़ा नमूना आप हम सभी
ने देखा ही है।
पर बताओ कि क्या इससे अभी तक तृप्ति हुई
है?
क्या इनसे पूर्ण सुख मिला है?
यदि नहीं मिला तो फिर इनके पीछे क्यों पड़े हो?
क्या कोई बहम बाकी रह गया है?
बाकी यही रहा है कि बढ़िया दुख मिलेगा। शिवाय दुख के और कुछ नहीं
मिलेगा। यह कोई मामूली खेल तमाशे की बात नहीं है। संयोग जन्य सुख लेने से परिणाम
में दुख होता ही है।
सच्चा सुख, आनंद
बाहर से नहीं आता अपितु भीतर से निकलता है।
सच्चे सुख का अंत नहीं होता है। एक बार
मिलने पर कभी बिछड़ता नहीं है। पर जब तक बाहर का सुख लोगे ,उसकी इच्छा करोगे ,उसे महत्व दोगे तब तक भीतर का सुख
मिलेगा नहीं।
संयोग जन्य सुख की इच्छा को दूर करने के
उपाय हैं।
दूसरों को सुख कैसे मिले,
ऐसी जोरदार इच्छा। भीतर में व्याकुलता उत्पन्न हो जाएगी दूसरों का
दुख कैसे मिटे?मैं करने पर जोर नहीं देता हूं अपितु भाव
बनाने पर जोर देता हूं।
भाव से चट काम हो जाता है। भाव हो तो करना
स्वतः हो जाएगा।
संपूर्ण प्राणियों के सुख का भाव होने पर
अपने सुख की लालसा सरलता पूर्वक मिट जाएगी। और अपने सुख की लालसा मिटने पर मुक्ति,
प्रेम ,अच्छा व्यवहार का अनुभव भी सरलता
पूर्वक हो जाएगा।
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