अपना जीवन दूसरों के हित के लिए हो
इस धरती पर ज्ञान देने वालों की कोई कमी नहीं
है। लेकिन ज्ञान का असर उसी व्यक्ति का
होता है, जो स्वयं उसका पालन करता हो तभी उस ज्ञान का असर अगले व्यक्ति पर होगा। मैं जो कार्य करने के लिए किसी को
प्रेरित करूं वह मुझे स्वयं भी करना चाहिए तभी उसका असर सकारात्मक पड़ता है।
जो बहुत उच्च श्रेणी के ज्ञानी व्यक्ति होते
हैं। उनके व्यवहार का असर दूसरों पर पड़ता
है वह चाहे मौन धारण ही क्यों न किए हो।
इस संसार में ऐसे बहुत से संत महात्मा ज्ञानी
हैं। जो पहाड़ की कंदराओ और गुफाओं में बैठकर के संसार के लोगों का उपकार
करते रहते हैं।
यदि कोई हमें अच्छी सीख देता है। तो उसे हमें ग्रहण कर लेना चाहिए चाहे वह कोई
भी हो।
प्रकृति से जीवन में वृक्षों के द्वारा शिक्षा
वृक्ष हमें शिक्षा दे रहे हैं, छाया दे रहे हैं,
फल दे रहे हैं, किसी वृक्ष में यदि आप कोई दातुन तोड़ लेते हैं। तो आपको कभी मना नहीं करते, वृक्ष से
हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हमारे स्वामित्व में जो चीज है। उसे कोई भी अपने कार्य में ले ले।
हम लोग बरगद के वृक्ष के नीचे बैठते हैं। बहुत अच्छी छाया मिलती है वह वृक्ष
कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है। यदि कोई इसमें जल डालता है ,और कोई नहीं डालता
है ।तब भी वह सबको समान भाव से ही छाया
देता है ।बदले
में वह कुछ चाहता नहीं है।
ऐसे ही हमें अपने जीवन में निष्काम भाव रखना
चाहिए ।बहुत ऐसे वृक्ष है जो फल देते हैं और
उनको हम खाते हैं और वह बदले में हमसे कुछ नहीं लेते। इनमें कितनी सहनशक्ति है, ऐसे ही हमें
अपने जीवन में सहनशक्ति धारण करनी चाहिए।
हम देखते हैं बहुत से ही छोटे-छोटे पौधे हम सभी
लोगों को कितनी शिक्षा दे रहे हैं। उनका संपूर्ण शरीर दूसरों के लिए ही है। हम लोगों को भी अपना शरीर दूसरों के
हित के लिए ही समझना चाहिए ।जो व्यक्ति दूसरे के लिए जीता है उसी का जीवन
धन्य है।
वृक्ष हमारे देखते-देखते धीरे-धीरे बढ़ते हैं । और गिर जाते हैं।
उन से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए, कि हमारा
शरीर भी उसी तरह होता है ।उसका विकास धीरे-धीरे होता है। और अंत में वह मर जाता है। संसार के सारे पदार्थ हमें शिक्षा दे
रहे हैं।
हमें अपना कर्तव्य सोचना चाहिए ।कि हमारा इस धरती पर क्या कर्तव्य है इस दुनिया में कोई भी चीज हो उससे हमें शिक्षा
लेनी चाहिए।
यदि वर्तमान के समय में हमारे अंदर कुछ
बुराइयां हैं। तो
उन्हें हमें हटाने का प्रयास करना चाहिए। और जो अच्छी चीजें हैं उन्हें हमें
ग्रहण करना चाहिए।
महापुरुषों की जीवनी और उनके दर्शन से और उनकी गुणों से हमें शिक्षा मिलती है। वह एक प्रकार की शिक्षा देने वाले
शिक्षालय ही हैं।
चद्दर से हमें जीवन में शिक्षा मिलती है
चद्दर से हमें जीवन में यह शिक्षा मिलती है ,कि वह जिसकी चद्दर है। वह चाहे अपने सिर पर रखे, चाहे पैरों
में रखे वह कभी उससे कुछ नहीं कहती। चाहे उसको नोच डालें, चाहे उसमें आग लगा दे,
लेकिन वह कभी कुछ बोलती नहीं है। उसने अपने आप को अपने मालिक को समर्पण कर दिया।
यह हमें शिक्षा दे रही है कि जैसे मैं अपने
स्वामी की शरण हूं।
यही शरणागत का भाव है ।जहां तक अपना अधिकार है। वह सब कुछ भगवान को अर्पण कर देना चाहिए
।भगवान के काम में ही लगा देना चाहिए। कठपुतली ने अपने आपको सूत्रों के धार
में अर्पण कर रखा है। हमें भी अपने आप को परमात्मा को अर्पण कर देना
चाहिए।
वह जो कुछ करें उनकी सारी क्रिया में मौन धारण
करके रहना चाहिए।
उनके नाम और गुणों का कीर्तन भजन ध्यान करना चाहिए ।कठपुतली यह नहीं कर सकती है ।हमें विशेष रूप से करना चाहिए।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है
कि सब कर्मों को मन से मुझ में अर्पण करके,
समान बुद्धि रूप से, योग को अलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझ में चित्र वाला
हो। इसी प्रकार हमें अपने शरीर की तरफ देख
कर निर्णय करना चाहिए। कि यह किस काम की वस्तु है ,चीज है दुनिया में
ऐसा कोई काम नहीं है। जो मनुष्य नहीं कर सकता है।
चादर तो मनुष्य की सेवा कर सकती है। मनुष्य देवता ,यक्ष , पितृ , गंधर्व, राक्षस, पशु, वृक्ष, दुनिया में जितने
भी प्राणी है। सब
की सेवा मनुष्य ही कर सकता है ।
मनुष्य के अलावा कोई प्राणी ऐसा नहीं कर सकता। यह मनुष्य का शरीर तुम्हारे हाथ है। जब तक यह तुम्हारे पास है। सब की सेवा करो सब की सेवा करना ही
महान यज्ञ है। हम
लोगों के लिए जो भी कर्तव्य बनाए गए हैं ।वह इसी बात का उपदेश देते हैं, कि सबकी
सेवा करो।
अग्नि में जब आहुति दी जाती है। उससे संसार के सारे देवता ,यक्ष,
राक्षस सभी तृप्त हो जाते हैं, और बलिवैश्वदेव में जो आहुतियां पृथ्वी पर दी जाती
हैं। व अन्य अतिथि को, गाय को दिया जाता है
।गाय को देने से सब की तृप्ति हो जाती
है। वह अन्न गाय को देने से सबको पहुंच जाता है।
इसका फल मैं नहीं चाहता कितना त्याग भरा हुआ है
।कितना ऊंचा भाव है, भगवान के तृप्ति से
सब की तृप्ति हो जाती है।
एक समय की बात है दुर्वासा ऋषि दुर्योधन के पास
गए। कहा मेरे साथ 10000 से से अधिक शिष्य है ।हमारे लिए भोजन तैयार करवाओ और मैं
स्नान के लिए जा रहा हूं। दुर्योधन ने भोजन तैयार करा दिया। जब दुर्वासा ऋषि आते भोजन हर समय
तैयार मिलता।
रात्रि को आते तब भी भोजन तैयार मिलता।
दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हो गए ,और दुर्योधन से
बोले कि मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम जो चाहते हो वह बताओ दुर्योधन ने कहा जैसे
मेरे पास आप आए हैं। इसी प्रकार युधिष्ठिर के पास भी उस समय जाएं,
जब द्रोपदी भोजन कर चुकी हो ।दुर्योधन ने सोचा कि यह वहां जाएंगे तो वह भोजन
नहीं करा सकेंगे।
और दुर्वासा ऋषि क्रोधित होकर श्राप दे देंगे। और उनका सारा खेल खत्म हो जाएगा। और मुझे युद्ध भी नहीं करना पड़ेगा ।दुर्वासा ऋषि ने कहा ठीक है और वह
युधिष्ठिर के वहां गए और बोले हमारे लिए भोजन तैयार करो, हम अभी नदी में स्नान
करने जा रहे हैं। जब
तक हम स्नान करके आते हैं तब तक आप भोजन तैयार रखिएगा ।
महाराज युधिष्ठिर ने कहा ठीक है। वह द्रोपदी के पास गए और कहा दुर्वासा
जी आए हैं ।द्रोपदी
ने कहा मैं तो भोजन कर चुकी हूं ।द्रोपदी को एक अक्षय पात्र मिला हुआ था। उस अक्षय पात्र में जब तक द्रोपदी
भोजन नहीं कर लेती थी तब तक उससे चाहे जितने लोग भोजन करें ।भोजन कभी कम नहीं पड़ता था।
लेकिन उस दिन द्रोपदी भोजन कर चुकी थी। और उस पात्र में उस दिन के लिए भोजन
नहीं बनाया जा सकता था।
द्रोपदी ने सोचा कि अब हमारी मदद केवल भगवान ही
कर सकते हैं। और
वह भगवान से प्रार्थना करने लगी इतने में ही भगवान वहां प्रकट हो गए। भगवान जब आए तो उन्होंने कहा कि मुझे
बहुत भूख लगी है।
मुझे भोजन कराओ।
तब द्रोपदी जी ने कहा प्रभु अब तो मैं भोजन कर
चुकी हूं। अब
हमारे पास भोजन कहां है। भगवान ने कहा कि जो तुम्हारे पास अछय पात्र है
उसको ले आओ ।
द्रोपदी अक्षय पात्र लेकर के आयी और भगवान के
सामने रख दिया।
उसमें कहीं एक पत्ता साग का लगा हुआ रह गया था। उस पत्ते को लेकर भगवान ने भोग लगाया ।भगवान के भोग लगाते ही संपूर्ण विश्व
तृप्त हो गया ।सबकी
भूख मिट गई।
और सहदेव को भेजा कि जाकर के बुला लाओ अब तो
यहां स्वयं भगवान बैठे हुए हैं। अब मुझे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।सहदेव जब नदी पर गए तो वहां देखते हैं
कि वहां कोई नहीं है। सब तृप्त हो गए, सब के पेट भर गए।
दुर्वासा जानते थे कि यह भगवान के भक्त हैं। यदि हमने इन के यहां भोजन नहीं किया
तो हमारी बड़ी दुर्दशा होगी। इसीलिए कहा कि अब जल्दी यहां से निकल चलो। सहदेव आए और सारी बात यहां कहीं। भगवान ने कहा ठीक है, जब आए तब बुला
लेना।
यहां हम बात कर रहे थे कि जब परमात्मा की तृप्ति
से सबकी तृप्ति हो जाती है। तो हम लोगों को नित्य ही बलिवैश्वदेव
यज्ञ करना चाहिए। और
भगवान को भोग लगाना चाहिए। उससे सारे संसार की तृप्ति हो जाती है। मनुष्य को दूसरों के लिए जीना चाहिए। अपने लिए नहीं जीना चाहिए ।और यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले
श्रेष्ठ पुरुष सभी प्रकार के पाप से मुक्त हो जाते हैं।
और जो पापी लोग केवल अपने ही शरीर का भरण पोषण
करने के लिए अन्न पकाते हैं वह तो केवल
बाप को ही खाते हैं।
अपने द्वार पर आए हुए, कोई अतिथि यदि आपके
दरवाजे पर आता है। तो
उसकी सेवा करें।
अपनी शक्ति के अनुसार उसे सुख पहुंचाएं ब्राह्मणों को भोजन करवाना यज्ञ है। अतिथि की सेवा करना महायज्ञ जो कुछ हम
भोजन के लिए लाते हैं ,दूसरों को देते देते वह समाप्त हो जाए हम भूखे रह जाएं तो
वह अश्वमेध यज्ञ के समान है।
हमको
सबके लिए अपना जीवन धारण करना चाहिए। वेद भगवान कहते हैं जो इस संसार में इस
तरीके का कर्म करता है ।वह लिपायमान
नहीं होता, हम माला फेरे किसके लिए सब के कल्याण के लिए ही ।इससे बड़ा लाभ होता है सबका हित हो ऐसा
त्याग किया, उसका जो फल हुआ वह भी सबके लिए त्याग दिया ,कोई भी अच्छा काम करें
भगवान को उसका फल अर्पण कर दें। यह निष्काम भाव है बहुत ऊंचा भाव है।
इस संसार के प्रत्येक कार्य में शास्त्रों के
द्वारा सिखाया गया है ।त्याग की शिक्षा हमारे हिंदू धर्म में दी गई है। हमें अपना जीवन दूसरों की सेवा के लिए
समर्पित कर देना चाहिए।
जैसे चद्दर हमें बैरागी सिखाती है। इस चद्दर को देखने से बैराग्य होता है। यह चद्दर अब पुरानी हो गई है, यह
शिक्षा दे रही है कि तुम अपने शरीर की पहले की अवस्था का अनुभव करो अब तुम भी
पुराने होते जा रहे हो। जब तक तुम्हारा यह शरीर है, तब तक इस से जो
काम लेना है, वह ले लो। जब तक वृद्धा अवस्था दूर है ।तब तक शरीर स्वस्थ है ।तभी तक जो करना है, वह कर लो, नहीं तो
बाद में केवल पश्चाताप ही करना पड़ेगा।
यदि भगवान में आपका प्रेम होगा तो एक पल भी
विलंब नहीं होगा ।जिस
प्रकार उन्होंने द्रोपदी की सुन ली उसी प्रकार आप की भी सुन लेंगे। संसार की समस्त व्रतियों को हटाना
चाहिए। संसार के पदार्थों को क्षणभंगुर
नाशवान समझकर इन से वृत्तियों को हटाकर
हमें भगवान में लगाना चाहिए।
संसार में जो आनंद मिलता है। उससे लाखों गुना अधिक आनंद बैराग्य में है। उससे लाखों गुना अधिक परमात्मा के
ध्यान में है। और
उससे भी ज्यादा आनंद परमात्मा की प्राप्ति में है ।वह परमात्मा की प्राप्ति प्रेम से ही
होती है ।उस
परमेश्वर के लिए हमें जीना चाहिए। खाना, पीना, जीना, रोना सब भगवान के लिए ही
होना चाहिए ।ऐसे
भाव से भगवान मिलते हैं।
इस संसार में जितने भी लोग हैं। सबको नारायण का रूप समझकर सब की सेवा
करना चाहिए और अपना जीवन दूसरों के हित के लिए ही लगा देना चाहिए।
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