जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उसका उद्देश्य-jivan ka lakshy swarup aur uska uddeshy

                              जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उसका उद्देश्य

बहुत समय पहले की बात है, जब महान साहित्यकार महात्मा टालस्टाय अपने साहित्य के क्षेत्र से अपनी दिशा को मोड़ कर अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य ईश्वर चिंतन में लीन  होने के लिए प्रयासरत थे


उसी समय उनके एक मित्र ने उनको एक पत्र के माध्यम से अनुरोध किया कि आप महान साहित्यकार हैं आप अपनी प्रतिभा को किसी अन्य क्षेत्र की ओर मोड़ करके अपना समय न बर्बाद करे केवल आप साहित्य का ही कार्य करें

महात्मा टालस्टाय ने अपने मित्र की बात को अनसुनी कर दिया, और उनको कोई जवाब भी नहीं दिया ,क्योंकि वह अपने जीवन के समस्त सांसारिक सुख को भोग करके बिना किसी दबाव और प्रयास के ईश्वर चिंतन की ओर गए थे

जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उसका उद्देश्य-jivan ka lakshy swarup aur uska uddeshy




उसी में ही उनको अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य दृष्टिगोचर हो रहा था अभी तक इस बात को नहीं समझ पाए थे कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है और इस जीवन का उद्देश्य क्या है

बहुत से दार्शनिक प्लेटो भास्कर भी उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके कि मैं क्यों जी रहा हूं और मुझे कैसे जीवित रहना चाहिए और जीवन का क्या उद्देश्य है

इसीलिए महात्मा टालस्टाय ने अपना रुख ईश्वर चिंतन की ओर मोड़ लिया वह अपने इन प्रश्नों का उत्तर केवल ईश्वरीय शक्ति के द्वारा ही प्राप्त कर सकते थे

ईश्वरीय शक्तियों को ग्रहण करने की क्षमता हमारे शरीर के अंदर विद्यमान है यदि वह हमारे अंदर पहले ही विद्यमान है तो उसका स्वरूप कैसा है इन्हीं प्रश्नों की उत्तर पाने की जिज्ञासा महात्मा टालस्टाय के अंदर उत्पन्न हुई

संसार के अन्य विचारको ने भी अपनी-अपनी तरह से राय दी परंतु चिंतन का व्यवहारिक उपयोग ना हो सका

हमारे शरीर के अंदर ईश्वर की कृपा ग्रहण करने की क्षमता हमारी आत्मा में है

आत्मा ही इस शरीर रूपी रथ की रथी है

जिस तरह एक रथ को चलाने के लिए घोड़ों की आवश्यकता होती है बिना घोड़ों के रथ नहीं चल सकता ठीक उसी प्रकार हमारी आत्मा इस शरीर का रथी है

उसी प्रकार हमारे शरीर में पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां हैं जो हमारे शरीर रूपी रथ के घोड़े विद्या और कर्म यह दोनों इस रथ के पहिए हैं इस संसार में आत्मा की जो भी गतिविधि है वह सब कर्मों के द्वारा ही है जीना और मरना संतान उत्पत्ति करना, खानपान यह सब आत्मा के बाहरी स्वरूप है

अच्छे विचारों से हमारी आत्मा को बल प्राप्त होता है और कुविचारों से आत्मा की शक्ति नष्ट हो जाती है

सतर्कता, जागरूकता और चेतन आत्मा की ज्योति है इसके प्रकाश में मनुष्य के शरीर का लक्ष्य दिखाई देता है आत्मा को ज्योति को जगाने वाला व्यक्ति स्वयं परमात्मा का स्वरूप हो जाता है

अविश्वास, अंधविश्वास ,संशय यह सब हमारे मन की तमस है इनके रहने पर मनुष्य अपने सही मार्ग पर नहीं चल पाता है और वह पथभ्रष्ट हो जाता है उसे सही दिशा का ज्ञान नहीं हो पाता, और वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है

इस संसार के समस्त दुख की जड़ है बंधन, और यह बंधन माया का रूप है जैसे एक स्थान पर स्थित रहने वाला पानी दुर्गंध युक्त हो जाता है और वह किसी के पीने लायक नहीं रह जाता अर्थात किसी के उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं होता

ऐसे ही माया में बंधा हुआ मनुष्य समस्त शक्तियों से शक्तिहीन हो जाता है मनुष्य के लिए बाहरी बंधन इतने कष्ट दाई नहीं होते, जितने उसको आंतरिक बंधन कष्ट दाई होते हैं

इन बंधनों में व्यक्ति स्वयं पड़ता है संसार में कोई भी व्यक्ति उसको इस बंधन में बांध नहीं सकता है क्योंकि यह जीवन चैतन्य स्वरूप है और उसके सारे बंधन जड़ है, जड़ कभी चेतन को नहीं बांध सकता

व्यक्ति स्वयं  मोह, ममता और अज्ञान से अपने को बांध लेता है फिर वह सांसारिक कष्टों से ऊब जाता है

जीवन के अर्थ का वास्तविक ज्ञान न होने के कारण ,उसे यह सब दुख प्राप्त होते हैं और इन बंधनों से मुक्ति प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य हो जाता है तब उसे सब निरर्थक लगने लगता है

झूठी ममता और मोह ऐसे हटने लगते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार दूर भाग जाता है चारों और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है

पूर्णता प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को सभी बंधन तोड़ देने चाहिए उन्हें न किसी जाति का मोह होना चाहिए ,ना परिवार की माया ,मोह व्यक्ति को अपने मार्ग से विचलित कर देता है और यदि वह व्यक्ति विशेष के साथ अविवेक पूर्ण लगाव रखता है, तो यह उसके हृदय की दुर्बलता है

उसे ऐसा भाव करना चाहिए, कि इस संसार के जितने भी प्राणी हैं वह सब एक ही ईश्वर के बनाए हुए हैं इनमें न कोई छोटा है और न कोई बड़ा उसे ऐसा भाव रखना चाहिए और इस प्रकार का भाव रखने वाला व्यक्ति समस्त संसार के कल्याण के लिए ही कार्य करता है

जो व्यक्ति किसी के साथ छल, कपट अनुचित व्यवहार नहीं करता है सबके साथ समान व्यवहार करता है

वह अपने जीवन के वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है और मैं क्यों जीवित हूं इस उत्तर की प्राप्ति भी कर लेता है

इन भावनाओं को बल प्रदान करने में  उसकी दृढ़ शक्ति अनिवार्य है व्यक्ति अपने संकल्प की शक्ति का अनुमान नहीं लगा सकता कि उसमें कितनी क्षमता है संकल्प के द्वारा ही भगवान ने इतनी बड़ी सृष्टि की रचना कर डाली ऐसा उल्लेख हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है

त्रष्णा और वासना की ओर दिन-रात दौड़ लगाने वाले मन पर विवेक बुद्धि से अनुशासन बनाए रखने से ही जीवन की समस्त समस्याओं का हल निकल आता है व्यक्ति अपने ऊपर स्वयं का जितना अनुशासन करेगा, उसका जीवन उतना ही श्रेष्ठ और विकसित होगा

मानसिक संकल्पों के संतुलन के द्वारा मनुष्य के अंदर अपार शक्तियां एकत्रित हो जाती हैं इस एकाग्रता का बल संयम और अपने ऊपर कठोर अनुशासन रखने से ही इन शक्तियों का मिलन होता है

मनुष्य के अंदर मानसिक दुर्बलता के कारण ही मन इधर-उधर भटकता रहता है यदि हमारी इच्छाएं, विवेक बुद्धि के कठोर अनुशासन में बनी रहे ,तो निश्चित ही हमारी उन्नति होगी

जीवन को जीने के लिए और जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सद्गुणी, चिंतनशील होना चाहिए और उसे ऐसी भावना रखनी चाहिए कि मै मन, कर्म और वचन से पवित्र हूं इस संसार के समस्त प्राणियों के दुःख

मेरे दुख है और सब के सुख से ही मेरा सुख है इस संसार के समस्त दिशाओं से मुझे प्यार मिल रहा है ऐसा विचारशील व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर सकता है

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