हमारे दैनिक जीवन में गृहिणी की क्या भूमिका है?
हमारे जीवन में गृहिणी की महत्वपूर्ण भूमिका
होती है। गृहिणी
ही घर को सुव्यवस्थित करती है ।वह घर में पृथ्वी पर स्वर्ग का माहौल बनाती है ।सारी सुख सुविधाओं को सुसज्जित एक गृहिणी
के द्वारा ही किया जाता है। घर के प्रत्येक सदस्यों का ध्यान रखना, वह
उनको समय पर भोजन उपलब्ध करवाना उनके लिए कपड़ों को धोना,घर की साफ-सफाई करना व घर
को रहने लायक बनाना एक गृहिणी के द्वारा ही किया जाता है।
आइए हम जानते हैं कि एक गृहिणी की क्या
महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं हमारे दैनिक जीवन में ।
गृहिणी कई रूप में हो सकती है । माता के रूप में ,बहन के रूप में
,बेटी के रूप में ,पत्नी के रूप में
बच्चों के जीवन का निर्माण एक गृहिणी के द्वारा ही होता है।
कोमल वस्तु पर प्रभाव अत्यंत शीघ्र किंतु स्थाई
पड़ता है ।छोटे
कोमल पौधों को माली जैसे चाहता है वैसे वह कर देता है, मिट्टी के बर्तन को एक
कुम्हार अपनी इच्छा अनुसार आकृति देता है। ठीक उसी प्रकार एक छोटे बालक की
स्थिति होती है ।उनकी
प्रकृति, उनकी बुद्धि ,उनका स्वभाव, मस्तिष्क, हृदय आदि इतने सरल और कोमल होते हैं
कि उन पर आप जो संस्कार डालना चाहे डाल दीजिए। आपको किसी प्रकार का परिश्रम नहीं
करना पड़ेगा ।बालकों
का हृदय स्वच्छ एवं सफेद वस्त्र के भांति है।
जिस पर किसी प्रकार का रंग नहीं चढ़ा होता है। इस अवस्था में बालकों की शिक्षा एक
माता के द्वारा ही दी जाती है जो एक गृहिणी ही होती है।
सीखने की प्रवृत्ति से ही बच्चे शिक्षा प्राप्त
करते हैं। यह
शक्ति बालकों में जन्मजात होती है।
बच्चों के बालपन का समय एक गृहिणी के द्वारा ही
बीतता है। एक
गृहिणी की गोद में ही पलता और बढ़ता है, अर्थात उसके जीवन का निर्माण गृहिणी के ही
हाथों में होता है।
यदि एक गृहिणी चाहे तो अपने बालक को सदाचारी, कर्तव्य परायण, शांत, धीर, वीर एवं
गंभीर बना सकती हैं।
विश्व के इतिहास में जितने भी महापुरुष हुए हैं
वह सब एक गृहिणी की ही देन है ।यहां हम गृहिणी की तुलना माता से करते हैं।
माता का हृदय प्रेम की मूर्ति होता है ।वह अपने सात्विक स्नेह के द्वारा बच्चे
के जीवन में सरसता उत्पन्न करती है और उनके जीवन के निर्माण के लिए उत्तरदाई होती
है। उनके पढ़ने का समय ,उनके सोने का समय,
उनके जागने का समय, यह एक माता के द्वारा ही निश्चित होता है। बच्चों को शिक्षा अध्ययन के लिए स्कूल
को भेजना ,वहां से आने पर उनके साथ बैठ कर के बातें करना, व उनको अच्छी शिक्षा
देना, सभी प्रकार की बुराइयों से दूर करना एक ग्रहणी के द्वारा ही संभव है।
परिवार के प्रति गृहिणी की वफादारी
एक परिवार में गृहिणी कई भूमिकाओं में हो सकती
है। जैसे बेटी, बहन, पत्नी व मां के रूप
में, गृहिणी के यह चारों ही रूप पूजनीय, सम्माननीय हैं। इन चारों ही भूमिकाओं में वह अपना
कर्तव्य का पालन करती है ।अपना स्नेह प्यार व ममता लुटाती है। बेटी के रूप में अपने माता पिता का
गौरव बढ़ाती है।
बहन के रूप में अपने भाई का सहयोग करती है। पत्नी के रूप में अपने पति के हर सुख
दुख में बराबर की भागीदार होती है।
अपने धर्म का पालन करती है ।और एक मां के रूप में अनगिनत कष्ट और दुःख
को सहकर भी एक नए अस्तित्व को आकार देती
है। एक नए जीवन को संवारती है। तथा जब एक गृहिणी को बंधनों में रखा जाता था।
उसे घर की चारदीवारी में कैद किया जाता था। शिक्षा से वंचित किया जाता था, रीति
रिवाज व परंपराओं में बांधा जाता था, और अनेक रूढीवादी प्रथाओं को मानने के लिए
विवश किया जाता था।
वर्तमान के समय में इस प्रकार के रूढ़िवादी परंपरा
एवं मान्यताएं समाप्त हो चुकी है ।अर्थात यहां हम कह सकते हैं की एक गृहिणी त्याग
की मूर्ति होती है।
तपस्या की मूर्ति होती है। उसका हमें सम्मान करना चाहिए और उसके प्रति
वफादार होना चाहिए।
चाहे वह मां के रूप में हो ,चाहे वह बेटी के रूप में हो, चाहे वह बहन के रूप में
हो।
चाहे वह पत्नी के रूप में हो, वह हमारे हर
सुख-दुख के सहभागी होती है।
घर की लक्ष्मी होती है गृहणियां
घर को संभालने वाली ,परिवार के प्रत्येक सदस्य
की सेवा में तत्पर रहने वाली, उनके सुख-दुख का ध्यान रखने वाली, गृहणियां घर की
सौभाग्य लक्ष्मी होती है। आधुनिकता के श्राप से ग्रस्त कतिपय लोग उनके
सेवा भाव व कार्य के महत्व को नजरअंदाज करते हैं।
इस प्रकार की मानसिकता रखने वाले लोगों ने गृहणियों
को दोयम दर्जे की महिला मान लिया है। उनकी ऐसी मान्यता का कारण धन का अर्जन करना है। इनका कहना है, कि श्रेष्ठ महिलाएं वे हैं,
जो नौकरी करती हैं ,धन कमाती हैं, और पुरुषों का हाथ बटाती है। यह स्पष्ट करने का मन है ,कि अर्थ
उपार्जन में, पुरुष या पति का हाथ बटाना बुरा नहीं है। इसमें भी नारी की श्रमशीलता व प्रतिभा
की ही झलक मिलती है। परंतु इससे घर की देखभाल करने वाली, बच्चों के
संस्कार व शिक्षा पर ध्यान देने वाली, नारी का महत्व कम नहीं हो जाता है।
घरेलू महिलाओं की तुलना में कामकाजी महिलाओं को
श्रेष्ठ मानने की पृष्ठभूमि में आर्थिक दृष्टि प्रमुख है। धन ही सब कुछ है, यह सोच है, जीवन के
संचालन में, धन महत्वपूर्ण है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन धन सब कुछ है, यह मानना पूरी
तरह से सही भी नहीं है।
धन के साथ संस्कार, संवेदना, सेवा आदि भी
महत्वपूर्ण है। धन
व इसके उपार्जन को दृष्टि में रखकर भी सोचा जाए ,तो घरेलू महिलाएं नौकरी सुधा
महिलाओं की तरह कोई कमाई भले ही न करती हो । लेकिन खाना पकाने, बच्चों को पढ़ाने
से लेकर घर के अनगिनत काम करके पाई- पाई बचाती जरूर है । हमारे आर्थिक सर्वेक्षण से यह पता चल
चुका है कि घर की कमाई में महिलाओं का योगदान अत्यधिक होता है।
महिलाएं घर की साफ-सफाई करती हैं। दिन में कई बार नाश्ता व् खाना बनाती
हैं, कपड़े धोती हैं ,बच्चों को पालती हैं, उन्हें सुबह सुबह स्कूल के लिए तैयार
करती हैं, उनकी हैसियत एक प्रतिष्ठित सोशल इंजीनियर की तो है ही। इस हैसियत से सम्मान व सुविधाओं को तो निश्चित ही हकदार है।
घर में रोजमर्रा के कामों को किसी और माध्यम से
करने पर खर्च अधिक आता है। साथ ही घर में शील ,संस्कार व संवेदना की बात
शेष रह जाती है।
निश्चित ही घर में धन साधन के साथ सम्मान का भी उन्हें नैसर्गिक हक है ।आप पारंपरिक सोच यह जरूर कहते हैं, कि
गांव के कुएं या बावड़ी से पानी लाना, किसान पति को खेत पर खाना पहुंचाना, कंडों
के लिए गोबर थापना, बच्चों को पालना, शहर में उन्हें स्कूल भेजने, लेने जाना, आदि
सारे काम घरेलू श्रेणी के ही हैं। और यह काम नहीं घरेलू महिलाओं के कर्तव्य हैं।
जिनका उन्हें अनिवार्य रूप से पालन करना है। इन घरेलू महिलाओं का भी घर के धन व
संसाधन पर नैसर्गिक अधिकार है। वह घर के जिस कामकाज में दिन भर रहती हैं। वह सिर्फ उनका फर्ज नहीं है। बल्कि घर की अर्थव्यवस्था में उनका
योगदान का एक महत्वपूर्ण पहलू है।
घरेलू महिलाओं के कामकाज के आर्थिक मूल्यांकन
का प्रश्न माननीय सर्वोच्च न्यायालय में भी उठ चुका है। जुलाई 2010 में सर्वोच्च न्यायालय में एक दुर्घटना की शिकायत हुई उत्तर प्रदेश
की एक महिला के परिजनों को दी जाने वाली मुआवजा राशि ढाई लाख से बढ़कर 6:30 लाख रुपए का आदेश देते हुए, सर्वोच्च
न्यायालय ने ऐसी ही टिप्पणी की थी ।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, कि एक
ग्रहणी या हाउसवाइफ के काम को अन उत्पादक मानना महिलाओं के प्रति भेदभाव है। न्यायालय ने इस बात पर हैरानी जताई थी
थी ,कि जनगणना तक में घरेलू महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया झलकता है।
2001 की
जनगणना में खाना पकाने, बर्तन साफ करने, बच्चों की देखभाल करने, पानी लाने, जलावन
एकत्रित करने, जैसे घरेलू काम करने वाली महिलाओं को गैर श्रमिक वर्ग में रखा गया
था ।और आश्चर्यजनक रूप से उनकी तुलना
भिखारियों और कैदियों जैसे अन उत्पादक समझे जाने वाले वर्ग से की गई थी। ऐसे दृष्टिकोण को पूरी तरह से गलत
बताते हुए अदालत ने उस शोध की चर्चा की थी। जिसमें भारत की करीब 36 करोड़ ग्रहणीयों के कार्यों का
वार्षिक मूल्य लगभग 692 पॉइंट 8 अरब डालर आंका गया था।
इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा
था, कि संसद को कानून में संशोधन करना चाहिए। ताकि किसी दुर्घटना या वैवाहिक संपत्ति
के बंटवारे के समय उनके कार्यों का संतुलित दृष्टिकोण से मूल्यांकन हो सके।
घरेलू महिलाओं के कामकाज की कीमत और उनकी
हैसियत के आकलन का मुद्दा दरअसल एक सामाजिक सच और हमारा ध्यान आकर्षित करता है। घरेलू काम की कीमत नहीं आके जाने के
कारण ही महिलाएं आज उपेक्षित बनी हुई है। चर्चाएं भले ही कितनी हो ,और कहीं भी
की जाती हों ।पर
सच यही है कि आज भी हमारे समाज में ग्रहणी या हाउसवाइफ के कार्यों को दोयम दर्जे
का समझा जाता है।
घरेलू महिलाओं के काम का आज के बारे में आम धारणा यही है कि, यह सब तो उन्हें हर
हाल में करना है।
हालांकि बदले में उन्हें रुपए पैसे तो क्या
आवश्यक सम्मान और स्नेह तक नहीं मिलता यह व्यवहार उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से
आहत कर देता है।
व्यापक एवं ग्रहण परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर निष्कर्ष यही निकलता है, कि
परिवार व समाज की नीव महिलाओं के उन्हीं कार्यों पर टिकी है।
जो कहीं दर्ज नहीं किए जाते ग्रामीण जीवन में
तो महिलाओं के योगदान के बगैर कृषि कार्य संभव ही नहीं है। शहरों में भी स्थिति अलग नहीं है, हाल
के वर्षों में शिक्षित महिलाओं के एक बड़े तबके ने रोटी रोजगार के नए नए क्षेत्रों
में प्रयोग किया है। लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी है। जिन्होंने अपने उच्च शिक्षा के बावजूद
सोच समझकर ग्रहणी या हाउसवाइफ बनना स्वीकार किया है।
ताकि वह घर परिवार को पर्याप्त समय दे सकें ,और
बच्चों का भविष्य बना सके वह घर परिवार के रोजमर्रा के जीवन को बेहतर बनाने के लिए
जो योगदान कर रही हैं। उनका महत्व किसी भी रूप में कम नहीं है। यह अलग बात है कि विभिन्न उत्पादन
सेक्टरों की तरह उनके काम को आंकने का कोई ठोस पैमाना हम नहीं बना सके हैं। आज इसकी आवश्यकता आ पड़ी है समाज को गृहिणियों
के कार्य को महत्व देना होगा।
उनका मूल्यांकन करना होगा, अगर समाज ऐसी
मानसिकता विकसित कर पाएगा तो कई समस्याएं स्वयं ही सुलझ जायेंगी ।साथ ही यह भी स्पष्ट हो सकेगा, कि
ग्रहणी ही यथार्थ में घर परिवार व समाज की शोभा व सौभाग्य की लक्ष्मी है।
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