विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कैसे बने-vishwamitra bramhrishi kaise bane

                                                     विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कैसे बने

विश्वामित्र बड़े ही तेजस्वी प्रतापी और महान ऋषि थे। विश्वामित्र जी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। वह जन्म से क्षत्रिय थे उन्होंने अपने तप , पराक्रम, निष्ठा और लगन के बल से छत्रियत्व  से ब्राह्मणत्व  प्राप्त किया। राजर्षि से ब्रम्हाऋषि  तक का पद प्राप्त किया। विश्वामित्र जी  ब्रम्हा ऋषि धर्म ग्रहण करने से पूर्व बड़े ही प्रतापी राजा और प्रजा पालक नरेश थे।

प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि , विश्वामित्र जी राजा गाधि के पुत्र थे।


 विश्वामित्र का जन्म कैसे हुआ

परशुराम के दादा महर्षि ऋचक का विवाह गाधि नरेश की पुत्री सत्यवती से हुआ। सत्यवती की माता अर्थात महर्षि ऋचक की सास ने महा ऋषि ऋचक से निवेदन किया, कि आप महान तपस्वी है। आप कृपा करके अपनी मंत्र शक्ति से मुझे दिव्य संतान प्राप्त होने का आशीर्वाद दे । ऐसा निवेदन सुनकर महर्षि ने दो चरू अपनी मंत्र शक्ति से पकाए। एक अपनी पत्नी के गर्भ से ब्राह्मण पुत्र की उत्पत्ति के लिए, और एक अपनी सास के लिए ताकि वो अपने धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने वाला छत्रिय पुत्र उत्पन्न कर सके।

लेकिन दोनों मां और बेटी ने आपस में उन चरु को अदला-बदली कर लिया। समय बीतने पर जब महर्षि को इस बात का ज्ञान हुआ की आपस में चरू की अदला- बदली हुई है।तब उन्होंने अपनी पत्नी को बताया कि अब तुम्हारा पुत्र अत्यंत क्रोधी और क्षत्रिय स्वाभाव  वाला उत्पन्न होगा। और तुम्हारी माता का पुत्र ब्राह्मण और उचित गुणों वाला होगा।

 इस बात को सुनकर ऋषि पत्नी ने कहा नहीं मेरा पुत्र ऐसा नहीं होना चाहिए। पोता वैसा हो जाय।इस  पर महर्षि ऋचक ने तथास्तु कह दिया। इसी कारण से महर्षि ऋचक के पुत्र महर्षि जमदग्नि हुए। और महर्षि  जमदग्नि के पुत्र परशुराम।

जबकि विश्वामित्र का जन्म गाधि नरेश के घर हुआ। विश्वामित्र एक क्षत्रिय राजा हुए।

विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कैसे बने-vishwamitra bramhrishi kaise bane




 

विश्वामित्र का जन्म कब और कहां हुआ

शास्त्रों के अनुसार विश्वामित्र का जन्म राजा गाधि के घर कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि में हुआ। विशेष बात यह थी कि क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होते हुए भी उन्होंने राजकाज  संपदा और ऐश्वर्य से बढ़कर पूजा-पाठ जप और तप को महत्व दिया।

 विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध क्यों हुआ

विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण नहीं थे इनका जन्म छत्रिय वंश में हुआ था। विश्वामित्र का पूर्व नाम था राजा कौशिक, राजा कौशिक बहुत ही दयालु व प्रजा पालक राजा थे। एक बार वे अपनी विशाल सेना के साथ जंगल में निकल गए। रात्रि का समय हो जाने के कारण वहां रुकना चाहते थे। और रास्ते में ही गुरु वशिष्ठ का आश्रम पडता था।

 अपनी विशाल सेना के साथ वह रात्रि में गुरु वशिष्ठ के आश्रम में रुके। आश्रम में उनको और उनकी सेना को 56 प्रकार के व्यंजनों से खानपान की व्यवस्था वशिष्ठ मुनि द्वारा की गई। खाने में सभी प्रकार के व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट और सुगंधित थे। उन्हें यह आश्चर्य हो रहा था कि हमारे साथ इतनी विशाल सेना को भोजन एक आश्रम में इतनी शीघ्र कैसे उपलब्ध हो गया।

फिर उन्होंने गुरु वशिष्ठ  से कहा मुनिवर मैं जानना चाहता हूं कि मेरी विशाल सेना को भरपेट भोजन उपलब्ध कराया गया। यह आपके आश्रम में कैसे संभव हो पाया। तब वशिष्ठ जी ने कहा कि मेरे पास एक नंदिनी गाय है। जो कामधेनु की पुत्री है। इसे देवराज इंद्र ने मुझे भेंट  किया था ।यह नंदिनी गाय की कृपा से ही आप लोगों को और आश्रम के सभी लोगों को भोजन उपलब्ध होता है।

नंदिनी गाय का ऐसा चमत्कार देख कर के राजा कौशिक के मन में लालच उत्पन्न हो गया। राजा कौशिक ने वशिष्ठ मुनि से गाय को देने के लिए निवेदन किया। तब वशिष्ठ मुनि ने कहा कि राजन यह गाय मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है।

 इसी के द्वारा आश्रम में सभी लोगों का पेट भरता है। और आश्रम में आने वाले आगंतुकों की सेवा भी होती है। इसलिए यह गाय मैं आपको नहीं दे सकता। राजा कौशिक ने मुनि के मना करने पर अपना अनादर समझा। और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इस गाय को बलपूर्वक छीन लें।गाय को छीनने के लिए जैसे ही सैनिक गाय की तरफ बढ़े तब उस नंदिनी गाय ने गुरु वशिष्ठ की ओर देखते हुए कहा कि मुनिवर मेरी रक्षा कीजिए।तब वशिष्ठ मुनि ने कहा कि यह मेरे अतिथि हैं मैं इनके ऊपर कोई प्रहार नहीं कर सकता अब आप अपनी रक्षा स्वयं करें।

इस पर नंदिनी गाय ने अपने योग बल से कई हजार सैनिकों को प्रकट किया उन सैनिकों के द्वारा राजा कौशिक की समस्त सेना को परास्त किया। और राजा कौशिक को बंदी बनाकर वशिष्ठ के पास छोड़ दिया गया। कौशिक अपनी सेना के नष्ट होने से क्रोधित हो जाते हैं। और वशिष्ठ पर प्रहार कर देते हैं। तब वशिष्ठ जी क्रोध में आकर के राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर सभी को शाप देकर भस्म कर देते हैं।

अपने पुत्रों के अंत से दुखी होकर राजा कौशिक राजपाट छोड़ कर के अपना राजपाट अपने बचे हुए पुत्र को सौंपकर जंगल में तपस्या के लिए चले जाते हैं। हिमालय में घोर तपस्या करते हैं ,और तपस्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर लेते हैं। भगवान शंकर राजा कौशिक के समक्ष प्रकट होते हैं और वरदान मांगने के लिए कहते हैं।तब राजा कौशिक उनसे सभी दिव्य अस्त्रों का ज्ञान मांगते हैं, और भगवान भोलेनाथ उन्हें सभी दिव्य अस्त्रों से सुशोभित कर देते हैं।

धनुर्विद्या का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने के बाद राजा कौशिक मुनि वशिष्ठ से बदला लेने के लिए  युद्ध करते हैं। लेकिन वशिष्ठ जी द्वारा उनके सभी अस्त्रों और शस्त्रों को विफल कर दिया जाता है।अंत में वशिष्ठ जी क्रोधित होकर के राजा कौशिक के ऊपर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देते हैं। ब्रह्मास्त्र की तीव्र ज्वाला से चारों तरफ हाहाकार मच जाता है सृष्टि में उथल-पुथल मच जाती है। तब देवता गण वशिष्ठ से प्रार्थना करते हैं।आप तो राजा कौशिक से युद्ध जीत चुके हैं। आप अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले ले। नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। तब वशिष्ठ जी ब्रह्मास्त्र वापस ले लेते हैं।

वशिष्ट जी से मिली हार के कारण राजा कौशिक के मन में बहुत ही गहरा आघात लग जाता है। और वे समझ जाते हैं कि एक छत्रिय की बाहरी ताकत ब्राह्मण के योग की ताकत के सामने कुछ नहीं है।

ऐसा सोचकर वह प्रतिज्ञा करते हैं कि अब वह अपने तप के बल से ब्राम्हणत्व हासिल करेंगे। और वशिष्ठ से श्रेष्ठ बनेंगे।

तब वे दक्षिण दिशा में जाकर अन्न को त्याग करके घोर तपस्या करने लगते हैं। उनकी कठिन तपस्या से उन्हें राजश्री का पद प्राप्त हो जाता है। लेकिन कौशिक अभी भी संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वह ब्रह्म ऋषि का पद प्राप्त करना चाहते थे।

 विश्वामित्र ने नए स्वर्ग का निर्माण कर शरीर त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा

राजा त्रिशंकु की इच्छा थी कि वह सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे। त्रिशंकु  अपनी इच्छा लेकर वशिष्ठ जी के पास गए। लेकिन उनको खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। फिर वह वशिष्ठ जी के पुत्रों के पास गए, और अपनी इच्छा व्यक्त की, तब वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कुपित होकर उन्हें चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया।

लेकिन त्रिशंकु  इस पर भी नहीं माने और वह विश्वामित्र जी के पास चले गए। विश्वामित्र जी ने उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दे दिया। अपने तपोबल के द्वारा उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग को भेज दिया। स्वर्ग लोक से त्रिशंकु  को वापस कर दिया गया क्योंकि स्वर्ग में रहने के लिए शरीर का त्याग करना होता है।

ऐसा देख विश्वामित्र जी क्रोधित हो गए। और उन्होंने अपने तपोबल के द्वारा नए स्वर्ग का निर्माण कर दिया।

लेकिन अभी भी विश्वामित्र जी की इच्छा पूर्ण नहीं हुई थी क्योंकि वह ब्रह्मऋषि  बनना चाह रहे थे।

फिर उन्होंने अपना तप करना प्रारंभ कर दिया।

ऐसा देख कर के देवता लोग परेशान हो गए। उनको अपनी सप्ता हिलती दिखाई दे रही थी।

 

देवराज इंद्र ने मेनका को विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा

जब विश्वामित्र जी तपस्या कर रहे थे तब इंद्र को लगा कि अब वह वरदान में इंद्रलोक मांग लेंगे

इससे भयभीत इंद्र ने अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा। मेनका अत्यंत सुंदर अप्सरा थी विश्वामित्र जी उसके सामने हार गए। मेनका को भी विश्वामित्र जी से प्रेम हो गया। और दोनों लोग कई वर्षों तक साथ साथ रहे।

कुछ समय पश्चात अप्सरा मेनका स्वर्ग लोक को वापस चली गई।

विश्वामित्र जी ने पुनः  तप प्रारंभ कर दिया और अपने तपोबल के द्वारा उन्होंने ब्रह्म ऋषि का दर्जा प्राप्त किया। और वशिष्ठ जी ने उनको गले लगाया।

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