सफलता के साथ विवेक आवश्यक है-saflta ke sath vivek aavshyk hai

 सफलता के साथ विवेक आवश्यक है-Saflta Ke Sath Vivek Aawashyak Hai

सफलता के शिखर को स्पर्श करना, उसमें आरूढ़  एवं प्रतिष्ठित होना हर कोई व्यक्ति चाहता है।हर एक की उत्कृष्ट इच्छा होती है, कि वह अपने क्षेत्र में उन बुलंदियों और ऊंचाइयों तक पहुंचे जहां अब तक कोई नहीं पहुंचा।किसी भी क्षेत्र विशेष की सफलता उसके लिए नियोजित निरंतर लगन अथक प्रयास एवं अन्य कई बातों पर निर्भर करती है।


इनका पालन करके सफलता पाई जा सकती है ।बल्कि सफलता के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुंचा जा सकता है।परंतु ध्यान रहे शिखर पर कोई स्थाई आवास नहीं बना सकता  है ,और न ऐसा प्रयास ही करना चाहिए।क्योंकि यह वह चरम बिंदु है ,जहां व्यक्ति केवल  कुछ समय तक के लिए इसका अनुभव पाता है ,और फिर वहां से लौटना पड़ता है।

सफलता

सफलता का मतलब है कि किसी क्षेत्र विशेष में बहुत आगे तक पहुंचना और वहां पहुंचकर शिखर को अर्थात अपनी मंजिल या लक्ष्य को संपूर्ण रूप से प्राप्त कर लेना। हालांकि सफलता कुछ को ही उपलब्ध होती है। परंतु होती अवश्य है।

ऐसे ही कुछ उदाहरण है जैसे संगीत के क्षेत्र में लता मंगेशकर जिनको स्वर साम्रागी कहा गया है। खेल के क्षेत्र में सचिन तेंदुलकर, विज्ञान के क्षेत्र में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम आदि राजनीति में गांधी जी एवं जयप्रकाश नारायण आदि यह और इनके जैसे अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने सफलता की मंजिल को छुआ है।

सफलता के साथ विवेक आवश्यक है-saflta ke sath vivek aavshyk hai




जिसकी व्यक्ति केवल कल्पना ही कर सकता है इन महान शख्सियतों को उस क्षेत्र विशेष में सफलता का पर्याय माना जाता है।

सफलता के चरम शिखर पर पहुंचने वाले विख्यात एवं महान व्यक्ति सदैव सफलता के चरम पर नहीं होते और ना वे उस चरम शिखर पर सदैव बने ही रहते हैं। इनके जीवन मैं भी उतार-चढ़ाव आता है। उतार चढ़ाव तो प्राकृतिक नियम है। जीवन कभी सफलता के शिखर पर होता है तो कभी असफलता के गहन गर्त में गोता भी लगाता है।

सफलता की नित्य निरंतर नई बुलंदियों को पाते चले जाने से उत्साह उमंग तथा आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।

परंतु यदि इसे ठीक ढंग से विवेक पूर्वक न संभाला जाए तो यह असफलता का द्वार भी खोल सकती है।

विवेक

विवेक यानी कि उचित एवं अनुचित का सूक्ष्म भेद

इसके अभाव में अपार सफलता अहंकार  को जन्म देती है ,और अहंकार पतन एवं विनाश की ओर ढकेलता है।सफलता प्राप्त करने के बाद व्यक्ति यदि उसे विवेकपूर्ण ढंग से नहीं संभाल पाता है, तो उसको क्या सही है क्या गलत है। इस तरह का भान नहीं होता है। और वह सफलता के मद में चूर होकर  अनुचित कोई भी कदम उठा देता है।

यही अनुचित कदम उसको ऐसी खाई में धकेल देता है जहां से उसके विनाश की प्रक्रिया का आरंभ हो जाता है। सफलता के साथ-साथ यह ज्ञान होना भी आवश्यक है कि सफलता हमारे अथक प्रयास और परिश्रम का नतीजा है ।इसे हम संभाल कर रखें जिससे हमारे द्वारा कोई अनुचित कार्य ना हो।

सफलता एवं असफलता की दिशा देखने में तो स्थूल प्रतीत होती हैं ,परंतु यह बहुत ही सूक्ष्म है।

क्योंकि सफलता के शिखर पर पहुंचने पर सफलता प्राप्त करने का वह जज्बा, श्रम ,लग्न एवं निरंतर नवीन प्रयास करने की इच्छा शक्ति का वैसे ही बना रहना कठिन है।

मंजिल के पास या मंजिल की प्राप्ति के बाद इस तरह का जज्बा संभवत कम पड़ जाता है। अपार सफलता व्यक्ति में थोड़ा ठहराव ला देती है। उसे भोगने के लिए उस का आनंद उठाने के लिए शेष समस्त प्रयास एवं पुरुषार्थ को विराम दे देता है।

जैसे हाथ में रखी वस्तु तब तक सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है ,जब तक उसे आधार प्राप्त होता है। जैसे ही हाथ खींच लिया जाता है ,चीजों का गिरना प्रारंभ हो जाता है। हो सकता है, गिरने में समय लगे लेकिन गिरना अवश्य है।

ठीक इसी प्रकार सफलता एवं उपलब्धि तभी तक टिकी रहती है, जब तक उनको टिकाए रखने का प्रयास जारी रहते हैं।प्रयासों के हटते ही उपलब्धियां धीरे-धीरे समाप्त होने लगती हैं।

अपार वैभव एवं ऐश्वर्य भी एक दिन समाप्त हो जाते हैं।

यहां पर आकर व्यक्ति की वह अदम इच्छा रुक जाती है, जिसके बल पर वह यह सब कुछ प्राप्त करता है। यहां पर एक और गंभीर समस्या पैदा होती है और वह है अहंकार एवं निरंकुशता।

अहंकार मैं वृद्धि से बचे

अहंकार पैदा होता है उपलब्ध सफलता के द्वारा अर्जित  वैभव से। उसे लगता है कि वह इस सृष्टि का सबसे समृद्ध धनवान है, रूपवान है, गुणवान है ,प्रतिभावान है।किसी भी गुण या वैभव को अर्जित करने के बाद उसके आधार पर अपने को बड़ा और वह वस्तु जिसके पास ना हो उसे छोटा समझना एक भयंकर मूर्खता है।

यह एक ऐसी नासमझ मूर्खता है ,जो 1 दिन व्यक्ति को गहरे दलदल में डूबने को मजबूर कर देती है। यह अहंकार अधिक समय तक नहीं टिकता, और धराशाई हो जाता है।

इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं कि सफलता के चरम बिंदु पर पहुंचकर गर्व एवं घमंड ने कितनों को पतित किया है। एवं पतन के कगार पर धकेल दिया है। रावण, जरासंध ,कंस, दुर्योधन, शिशुपाल आदि अनेक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जो सफलता को संभाल नहीं सके और उसका गलत प्रदर्शन करने लगे। अपार वैभव, धन के बावजूद सुनिश्चित रूप से उनका पतन हुआ और इसे कोई रोक न सका।

सोने की नगरी लंका के अधिपति रावण की महासभा में पहुंचकर हनुमान जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।उनके आश्चर्य का कारण यह था कि वैभव के शिखर पर बैठा रावण चाहता तो कितने लोगों का कल्याण कर देता, और कितने लोगों को प्रत्यक्ष लाभ भी दे देता।

परंतु सफलता के मद में चूर वह अपने सभी ऐश्वर्य एवं संपदा का उपभोग स्वार्थ, अहंकार एवं अनीति, अत्याचार में नियोजित करने लगा। उसकी दुर्बुद्धि ने ही जगत जननी माता सीता को हरण करने की कोशिश की।

सफल होना

सफलता के चरम को उपलब्ध करना तथा उसका सुनियोजित एवं सार्थक उपयोग करना कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है। परंतु असंभव नहीं है। इतिहास में इस चुनौती को स्वीकार ने वाले महान लोगो की भी कमी नहीं है। जिन्होंने सफलता पाई उसके चरम को उपलब्ध किया परंतु फिर भी वैसे ही विनम्र, सहज एवं शांत बने रहे। अहंकार और स्वार्थ उनके पास टिक भी नहीं सका।

इस प्रकार के लोग ही वास्तव में सफल व्यक्ति कहलाते हैं।

जो काल के संग दिव्य प्रकाश स्तंभ के समान खड़े होकर औरों को प्रकाशित करते रहने का सदा प्रयास करते रहते हैं।ध्रुव ,प्रहलाद, बुद्ध महावीर शंकर शिवाजी, महाराणा प्रताप, चाणक्य, स्वामी विवेकानंद ,श्री अरविंद, रमण महर्षि,  से लेकर वैज्ञानिक पीसी राय तक ऐसे अनगिनत नाम है।

जो अपने क्षेत्र की उपलब्धियों को पाने के बावजूद भी सदा विनम्र बने रहे।उनकी सादगी और सरलता को देखकर अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता था ,कि क्या यह वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतिहास को मोड़ा है। परंतु इसका जरा सा भी अहंकार इनके व्यवहार में नहीं दिखा।

आचार्य चाणक्य ने अखंड भारत की सीमाओं को सुरक्षित कर लेने के बाद इसकी बागडोर चंद्रगुप्त के हाथों थमा दी और वे स्वयं अपने कुटिया में रहते एवं अपनी जीविका से उपार्जित चीजों से अपना सामान्य जीवन निर्वाह करते थे।

प्रहलाद का जीवन भक्तों की आनंदमई सुरसरि के समान है। भक्ति के प्रेमी उनके जीवन से नए आयाम पाते हैं। वे सदा ही भक्त बने रहे। भगवान ने उन्हें राज्य सौंपा वह राजा के रूप में प्रतिष्ठित हुए। परंतु उनके जीवन से भक्ति की धारा कभी भी धीमी नहीं हुई।

राज्य और भावना दोनों विपरीत ध्रुव हैं। दोनों का आपस में कोई मेल नहीं है। सत्ता से अहंकार एवं निरंकुशता पैदा हो जाती है। इसमें कठोर निर्णय एवं दंड व्यवस्था भावनाओं को क्षत-विक्षत कर देती है।जबकि दूसरी ओर भाव भरा ह्रदय ना तो सत्ता चाहता है और ना किसी पर इसके अधिकारों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करता है।

दो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रहकर भी प्रहलाद एक श्रेष्ठ राजा एवं भक्त थे। दोनों के चरम पर आरूढ़ होकर भी उन्हें ना तो स्वार्थ ने घेरा और ना ही अहंकार छू सका। जहां अहंकार होगा वहां भक्ति कैसे होगी।

भक्ति और अहंकार का दूर-दूर तक कहीं कोई मेल नहीं है।

जब अहंकार गलता है तो भक्ति अंकुरित होती है। सत्ता में अहंकार का आ जाना एक सामान्य सी बात है,परंतु प्रहलाद सम्राट का ताज पहन कर भी भक्ति के महासागर में निरंतर डूबे रहते थे यही सच्ची सफलता है।

सफलता का मूल मंत्र

सफलता के लिए आवश्यक है

सफलता के लिए परमात्मा के विधान पर अटूट विश्वास रखना एवं अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से पालन करना।समय की चाल को पहचानते हुए परिस्थितियों के साथ मेल स्थापित करना एवं भावुकता से दूर रहकर विवेक एवं वैराग्य का अभ्यास करना सफलता का मूल मंत्र है।

सफलता के लिए विवेक एवं वैराग्य की सर्वोपरि आवश्यकता है

क्योंकि विवेक उचित एवं अनुचित की समझ पैदा करता है। जो करने योग्य है, उसे प्राथमिकता देकर पूरे मनोयोग के साथ करने का साहस पैदा करता है। और अकर्मण्य एवं वर्जित चीजों को सिरे से नकार कर उनकी कोई चर्चा तक नहीं करने देता।

सफलता के साथ वैराग्य

सफलता के साथ बैरागी का भाव भी अटपटा लगता है क्योंकि मन करता है कि जो पाया है उसे भोग ले। भोगना बुरी बात नहीं है, भोग के साथ चिपक जाना बुरी बात है। इसी कारण भोग को त्याग के साथ स्वीकार करना चाहिए।

 बैराग इसी कारण आवश्यक है, ताकि जिस समय तक भोग काल है, उसे भोग कर निर्विकार भाव से अलग हट सके।यदि ऐसा नहीं होता है तो सफलता की उपलब्धि में,उसके वैभव की चकाचौंध में मन अटका रहेगा और आगे की यात्रा यहीं पर पड़ाव डाल देगी। आगे बढ़ेगी ही नहीं। अतः पूरी समझदारी के साथ यह अभ्यास करना उचित है कि सफलता को थमने नहीं दिया जाना चाहिए।

असीम धैर्य, कठिन परिश्रम एवं समय के साथ तालमेल करके आगे बढ़ते रहना चाहिए।

सफलता में आनंद बनाने के साथ ही असफल होने पर भी अविचलित रहने का हौसला होना चाहिए।हम सफल होते हैं तो प्रसन्न होते हैं एवं असफल होते हैं तो दुखी हो जाते हैं।सुख एवं दुख दोनों को समान भाव से अपना लिया जाए, तो ही जीवन की सार्थकता है। सुख के चरम में भी वही आनंद की धारा बहे और दुख के पलों को भी तप में परिवर्तित करके उसका आनंद उठाया जाए। ऐसे में व्यक्ति सदैव अपने चरम पर जीता है, क्योंकि वह गिरता ही नहीं। सफलता का सुख एवं असफलता का दुख दोनों ही उसे अस्थिर नहीं करते। यही सफलता का मूल मंत्र है।

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